Sunday, September 18, 2022

अधूरी चाहत (AMAR BHARAT)

अधूरी चाहत-


रात काली अमावस की थी-
और चेहरा तेरा चाँद सा,
इक लौ जलाई मैंने-
चमका तेरा चेहरा,
दिल में हुई हलचल-
वो सामने था ज़ुल्फ़ों का पहरा |

आंखे चमक रही थी-
जैसे कि सितारे हों ,
तुम मुस्कुराई तो दाँत दमके-
जैसे इक धागे में पिरोए-
श्वेत मोती सारे हों |

तेरे पास आ रहा थे मैं-
और तुम थोड़ा घबराई,
मेरे कदम वहीं रुक गए-
जो माथे पर तेरे -
पसीने कि बूँद आई,
तू घबरा गई-
ये सोचकर मैं रुक गया,
फिर तू ज़रा सम्भली,
मेरी तरफ कदम बढ़ाया,
कुछ हौंसला हुआ मुझमे-
और तेरी ओर मैं बढ़ आया |

बढे मेरे कदम जो तेरी ओर-
तुझे ख़ुशी तो हुई,
दिल ही दिल में खुश था मैं-
होठों पर मेरे हंसी तो थी,
आज तुम्हें छूकर मैं-
अहसास नया कुछ पाऊँगा,
ये सदियों की चाहत-
होगी पूरी,
अब पल न ये गवाऊंगा |

पर न जाने क्यों-
इस ख्याल के बाद,
कदम एक भी बढे नहीं-
जड़ सा मैं जमा रहा,
और काली किस्मत से काले बादल-
आसमा से हटे नहीं,
'कड़क उठी जो बिजली एक-
आँखे डर से खुली रही '

"आज फिर तुझको छू न पाया-
चाहत अधूरी बनी रही |"

                                                                अम्बरीष चन्द्र 'भारत'



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